Saturday, March 8, 2014

उलझन

उड़ने का है,शौक मुझे..
पर पंख कहाँ से लाऊं।।

कह तो दू बहुत कुछ मगर...
मेरी बातों को संभाल पाए ,
वे लव्ज़ कहाँ से लाऊं।।

इंतज़ार बस सुबह की थी,
तैयार तो मैं कब से था...
सुबह हुई तो उलझन में पड़ गया,
कि मैं कहाँ जाऊं।।

या तो ये बस बातो की ही बात थी,
या इन बातो में कुछ बात थी...
इन सब बातो में उलझा मैं,
ये बात किसको बताऊँ।।

कि शाम एक,हार का एहसास,
सहर एक,अनकही मजबूरी ही तो है...
मजबूरी फिर से चलने की,
फिर से लड़ने की
अब ये पूछता हूँ खुद से मैं,
की ये रात कैसे बिताऊँ।।

करू तैयारियां फिर,एक नये आगाज की...
या आज कें इस,अंजाम का गम मनाऊँ।

-आशीष

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